रेड 2(Raid 2) मूवी रिव्यू: अजय देवगन की स्टारडम के बोझ तले दम तोड़ती कहानी (Raid 2 movie review Ajay Devgn ki stardam ke bojh tale dam torti kahani)
साल 2018 में आई अजय देवगन की फिल्म ‘रेड’ ने एक ईमानदार इनकम टैक्स ऑफिसर अमय पटनायक के किरदार के ज़रिए दर्शकों के दिल में गहरी छाप छोड़ी थी। इस फिल्म ने साबित किया था कि बिना ज़्यादा मारधाड़ या मेलोड्रामा के भी एक गंभीर कहानी को दमदार तरीके से पेश किया जा सकता है। लेकिन छह साल बाद आई ‘रेड 2’ दर्शकों की उन्हीं उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती।
कहानी की झलक
‘रेड 2’ की कहानी एक काल्पनिक राज्य भोज में होती है, जहां अमय पटनायक (अजय देवगन) का ट्रांसफर एक बार फिर कर दिया जाता है – इस बार 74वीं बार! उनके सामने है एक नया प्रतिद्वंदी – दादाभाई (रितेश देशमुख), जो दिखने में जनता का सेवक है, लेकिन भीतर से बेहद भ्रष्ट और चालाक राजनेता है।
दादाभाई एक ऐसा नेता है जो अपनी मां के पैरों में दूध चढ़ाकर उनका आशीर्वाद लेता है और दूसरी ओर काले धन और सत्ता का बेजा इस्तेमाल करता है। अमय पटनायक की एंट्री होते ही राज्य की सियासत में हलचल मच जाती है। एक बार फिर, ईमानदारी और भ्रष्टाचार के बीच की टकराहट फिल्म का मुख्य विषय बनती है।
अजय देवगन की परछाईं में खोया किरदार
फिल्म का सबसे बड़ा संकट यही है कि इसमें हमें अमय पटनायक का चेहरा कम और अजय देवगन का स्टारडम ज़्यादा दिखता है। पहली ‘रेड’ में जहां अजय ने अपने किरदार में खुद को पूरी तरह ढाल दिया था, वहीं ‘रेड 2’ में वह कभी ‘सिंघम’ जैसे लगते हैं, तो कभी ‘दृश्यम’ के विजय सालगांवकर जैसे। वह किरदार में कहीं गहराई तक उतर ही नहीं पाते।
उनकी आंखों की गहराई, चुप्पी और चाल में जो ठहराव है, वह अजय देवगन की स्टाइल का हिस्सा है, लेकिन यह अमय पटनायक को एक अलग पहचान नहीं दिला पाता। यहां वह पटनायक कम, और देवगन ज़्यादा नज़र आते हैं। किरदार के भीतर का दर्द, संघर्ष और जिद, वह सब सिर्फ स्क्रिप्ट तक ही सीमित रह जाता है, परदे पर वह महसूस नहीं होता।
रितेश देशमुख का अधूरा विलेन
रितेश देशमुख ने ‘दादाभाई’ के रूप में एक नई चुनौती ली है, लेकिन यह किरदार उतना डरावना या चतुर नहीं बन पाया जितना फिल्म दर्शकों को दिखाना चाहती है। दादाभाई एक ऐसा नेता है जिसे लोग पूजते हैं, लेकिन उसका काला चेहरा फिल्म में कभी उतनी तीव्रता से उभर कर सामने नहीं आता।
दादाभाई का किरदार कहीं भावुक मां के बेटे के बीच अटका है, तो कहीं चालाक नेता बनने की कोशिश करता है, लेकिन इन दोनों पहलुओं में कोई गहराई या संतुलन नहीं है। शुक्ला जी (सौरभ शुक्ला), जो पहले भाग में एक यादगार विलेन के रूप में थे, वह यहां एक बार फिर कैमियो में नज़र आते हैं और उनके सामने रितेश की उपस्थिति फीकी लगती है।
वाणी कपूर की भूमिका और परिवारिक ट्रैक
वाणी कपूर अमय पटनायक की पत्नी की भूमिका में हैं, लेकिन उनके हिस्से कुछ खास करने को नहीं है। पहली फिल्म में इलियाना डिक्रूज़ के किरदार को जितनी जगह मिली थी, वाणी के किरदार को उतना ही सीमित कर दिया गया है। उनका पारिवारिक ट्रैक भी फिल्म की मुख्य कहानी से कटा-कटा सा लगता है और उसकी कोई विशेष आवश्यकता महसूस नहीं होती।
राजकुमार गुप्ता का निर्देशन और फिल्म की संरचना
राजकुमार गुप्ता, जिन्होंने पहली फिल्म का निर्देशन किया था, इस बार फिर निर्देशक की कुर्सी पर हैं। लेकिन इस बार वह कहानी को बांध पाने में असफल रहते हैं। फिल्म की शुरुआत भले ही प्रभावी हो, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, उसमें गति और कसाव की कमी साफ नज़र आने लगती है।
फिल्म में दो से तीन गाने भी डाले गए हैं जो न सिर्फ कहानी की गति को धीमा करते हैं, बल्कि जबरन डाले गए लगते हैं। एक गंभीर कहानी के बीच ये गाने किसी और ही फिल्म का हिस्सा प्रतीत होते हैं।
सिनेमैटोग्राफी और संगीत
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी औसत है। न कोई नया विजुअल अप्रोच, न ही कोई खास फ्रेम जो याद रह जाए। बैकग्राउंड म्यूजिक कुछ दृश्यों में प्रभावी है लेकिन पूरी फिल्म में वह लगातार असर नहीं छोड़ता।
‘रेड 2’ क्यों चूक गई?
रेड 2 वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती जिसकी दर्शकों को उम्मीद थी। एक मजबूत विषय – भ्रष्टाचार और सत्ता के खेल – के बावजूद फिल्म अपने लेखन और प्रस्तुति में कमजोर साबित होती है।
फिल्म में अजय देवगन के पास स्टार पावर है, लेकिन किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाए। उनका पटनायक इस बार उस इंसान की तरह नहीं लगता, जिसे देखकर हमें गर्व हो, बल्कि एक ऐसे सुपरस्टार की तरह जो ईमानदार अफसर की भूमिका निभा रहा है।
रितेश देशमुख की उपस्थिति एक नए ट्विस्ट की तरह आई थी, लेकिन वह भी स्क्रिप्ट की कमजोरी के चलते अपना असर छोड़ने में असफल रहे।
अगर आप ‘रेड’ जैसी मजबूत और टाइट स्क्रिप्ट वाली फिल्म की उम्मीद कर रहे हैं, तो ‘रेड 2’ शायद आपको निराश कर सकती है।
रेटिंग: 2.5/5
